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भारत की मिट्टियाँ/मृदायें: प्रकार, विशेषताएँ तथा वितरण | Types of Soil in India in Hindi

भूगोल विषय के इस लेख में हम 'भारत की मृदाओं' के बारे में जानेंगे। इस लेख में भारत देश में पाई जाने वाली मृदाओं के प्रकार (Types of Soil in India in Hindi), इनकी विशेषताओं और इनके वितरण के बारे में विस्तारपूर्वक समझाया गया है। 

Types of Soil in India in Hindi

Table of Content


मृदा/मिट्टी क्या होती है? - What is Soil in Hindi?

पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत पर पाए जाने वाले विभिन्न आकार के कार्बनिक और अकार्बनिक मिश्रित कणों को 'मृदा/मिट्टी' (soil) कहा जाता है। मिट्टियों का निर्माण चट्टानों के विखण्डन से होता है। चट्टानें विभिन्न खनिजों के मिश्रण से बनी होती है इस कारण मृदा में अनेक प्रकार के रासायनिक तत्व पाए जाते हैं।  


भारत की मिट्टियों/ मृदाओं का वर्गीकरण - Types of Soil in India in Hindi

भारत एक विशाल देश है। इस कारण यहाँ विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती है। भारत की मिट्टियों को हम सामान्यतया 4 वर्गों में विभाजित कर सकते है, जो निम्नलिखित है -

  1. जलोढ़/काँप मिट्टी 
  2. काली मिट्टी 
  3. लाल व पीली मिट्टी
  4. लैटेराइट मिट्टी


इसके अतिरिक्त 3 अन्य प्रकार की मिट्टियाँ भी है - 

  1. मरूस्थलीय मिट्टी 
  2. लवणीय व क्षारीय मिट्टी  
  3. पर्वतीय मिट्टी


1. जलोढ या कांप मिट्टी 

यह बहुत महत्वपूर्ण मिट्टी है। भारत के काफी बड़े क्षेत्र में यह मिट्टी पाई जाती है। इसके अंतर्गत देश का लगभग 40 प्रतिशत भाग सम्मिलित हैं। वास्तव में सम्पूर्ण उत्तरी मैदान में यह मिट्टी पाई जाती है। यह मिट्टी हिमालय से निकलने वाली तीन बड़ी नदियों सतलज, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों द्वारा बहाकर लाई गई है और उत्तरी मैदान में जमा की गई हैं। राजस्थान में भी इस मिट्टी की एक पट्टी है। यह मिट्टी गुजरात के मैदानों में भी मिलती हैं। जलोढ मिट्टी पूर्वी तटीय मैदानों, विशेष रूप से महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा प्रदेश में भी समान्य रूप से मिलती है। 


हजारों वर्षों तक सैकड़ों किलोमीटर दूरी तय करते हुए नदियों ने अपने मुहानों पर मिट्टी के बहुत बारीक कणों को जमा किया है। मिट्टी के इन बारीक कणों को जलोढ़क कहते हैं। इस मिट्टी में विभिन्न मात्रा में रेत, गाद तथा मृत्तिका (चीका मिट्टी) मिली होती है। यह तटीय मैदानों तथा डेल्टा प्रदेशों में व्यापक रूप से फैली है। नदियों के ऊपरी भागों में अर्थात इनके उद्गम स्थानों के निकट इस मिट्टी के कण और अधिक मोटे होते हैं। इस प्रकार की मिट्टी गिरिपाद मैदानों (पर्वतों के निकटवर्ती मैदान) में बहुत पाई जाती है।


कणों के आकार के अलावा इस मिट्टी का वर्णन इसकी आयु के आधार पर भी किया जाता है। आयु के आधार पर यह मिट्टी दो प्रकार की होती है -

  1. प्राचीन जलोढ़क/ बांगर 
  2. नवीन जलोढ़क/ खादर 

प्राचीन जलोढ़क (बांगर) में प्रायः कंकड होते हैं तथा इसकी अवमृदा में कैल्शियम काबोॅनेट होता हैनवीन जलोढ़क (खादर), प्राचीन जलोढ़क की अपेक्षा अधिक उपजाऊ होती हैं। 


जलोढ़ मिट्टियां सामान्यत: सबसे अधिक उपजाऊ होती है। इनमें साधारणतया पोटाश, फास्फोरिक अम्ल तथा चूना पर्याप्त मात्रा में होता है। लेकिन इनमें नाइट्रोजन तथा जैविक पदार्थो की कमी होती है। शुष्क प्रदेशों में इनमें क्षारीय अंश अधिक होता है। भारत की लगभग आधी जनसंख्या का भरण-पोषण इसी मिट्टी में उपजे खाधान्नों से होता है। 


जलोढ़ मिट्टी की विशेषताएं 

  • जलोढ़ मिट्टी का क्षेत्र सपाट है। इसलिए इस पर कृषि करना बहुत आसान है।
  • इस मिट्टी में अनेक रासायनिक पदार्थ मिलते हैं। 
  • यह मिट्टी बारीक कण वाली है। 
  • बारीक और भुरभुरी होने के कारण इसमें फसल सरलता से उगती है। क्योंकि खुराक पाने के लिये पौधों को ज्यादा कठिनाई नहीं होती है। 
  • इस मिट्टी में आर्द्रता ज्यादा समय तक स्थिर रहती है। 
  • इस मिट्टी में कुएं खोदना तथा नहरों का निर्माण सरल है। 



2. काली मिट्टी/रेगड़/रेगुर मिट्टी  

इस मिट्टी को रेगड़/रेगुर मिट्टी भी कहते है। इस मिट्टी का रंग काला होता है, इसलिये इसे काली मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी कपास की फ़सल के लिए बहुत उपयुक्त है। अतः इसे 'कपास वाली मिट्टी' भी कहा जाता है। यह मिट्टी दक्कन ट्रेप प्रदेश की प्रमुख मिट्टी है। इस प्रदेश का विस्तार दक्कन के पठार के उत्तर-पश्चिमी भागों में है।इसका निर्माण लावा के प्रवाह से हुआ है। महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी मध्य प्रदेश के पठारी भागों में यह मिट्टी पाई जाती हैं। इस मिट्टी का विस्तार दक्षिण में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों की घाटियों में भी है। मूल चट्टानी पदार्थों के साथ-साथ जलवायु की दशाएं भी इस मिट्टी के निर्माण में महत्वपूर्ण रहीं हैं, इसलिए इनका विस्तार लावा के पठार के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी है। यह लगभग 5 लाख किमी. में फैली है। 


काली मिट्टी के बहुत से क्षेत्र अतिउपजाऊ है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से पठारी क्षेत्रों में मिट्टी अपेक्षाकृत कमजोर है। ढलानों पर ये मिट्टीयां कुछ रेतीली है तथा पठारी भूमि पर अच्छी वर्षा होने के कारण उपजाऊ है। पहाड़ियों और मैदानों के बीच के हिस्सों में ये मिट्टीयां अधिक काली, गहरी और उपजाऊ है। पहाडियों से पानी के साथ बहकर आने वाली सामग्री जमा होते रहने के कारण इनकी उर्वरता निरन्तर बढ़ती रहती हैं। वैसे उच्च क्षेत्रों की काली मिट्टी की उर्वरता, निम्न स्थलों की काली मिट्टी की अपेक्षा कम रहती है


काली मिट्टी का निर्माण बहुत ही महीन मृत्तिका (चीका) के पदार्थो से हुआ है। इसकी अधिक समय तक नमी धारण करने की क्षमता प्रसिद्ध हैं। इसमे मिट्टी में पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाये जाते है। कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम कार्बोनेट, पोटाश और चूना इसके मुख्य पोषक तत्व है। इस मिट्टी में सामान्यतया फास्फोरिक तत्वों की कमी होती हैं। गर्म मौसम इस मिट्टी के खेतों में गहरी दरारें पड़ जाती है। इन दरारों से इसके वायु मिश्रण में सहायता मिलती है। पहली बौछार के तुरंत बाद इसमें जुताई करना आसान होता है, अन्यथा चिपचिपी हो जाने पर इसे जोतना कठिन हो जाता है। इस मिट्टी में कपास के अतिरिक्त मूँगफली, तंबाकू, ज्वार, बाजरा आदि फसलें भी उगाई जाती हैं।


काली मिट्टी की विशेषताएं

  • इसका रंग गहरा काला और इसके कणों की बनावट घनी होती है। 
  • दक्षिण की पहाड़ियों और पठारी ढालों पर यह मिट्टी कम उपजाऊ, हल्की और बड़े छिद्रों वाली होती है, जिसमें जल अधिक समय के लिए ठहर नहीं पाता। अतः इसमें केवल ज्वार, बाजरा, रागी या दालें पैदा की जाती हैं।
  • निम्न भूमि पर यह मिट्टी गहरी और अधिक काली होती हैं। 
  • इस मिट्टी में चूना,पोटाश, मैग्नीशियम तथा लोहा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। 



3. लाल व पीली मिट्टी 

दक्षिणी भारत के अधिकांश भू-भाग पर इनका विस्तार मिलता है। ग्रेनाइट, नीस और शिष्ट जैसी प्राचीनतम परिवर्तित चट्टानों की टूट-फुट से लाल मिट्टी का निर्माण हुआ है। यह हल्की कंकरीली होती है। इसका रंग कहीं-कहीं भूरा, चॉकलेटी, पीली व काला भी हो गया है। 


यह मिट्टी दक्षिण भारत की मिट्टी है। बंगाल के संथाल परगना और छोटा नागपुर पठार, पश्चिमी बंगाल के पश्चिमी जिले- बाकुडा ,वीरभूमि व मिदनापुर जिले, मेघालय, तमिलनाडु, कर्नाटक, दक्षिणी पूर्वी महाराष्ट्र, पश्चिमी-दक्षिणी आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के झाँसी, ललितपुर, मिर्जापुर, हमीरपुर और बांदा जिलों में लाल मिट्टी मिलती है।


इन मिट्टियों में नाइट्रोजन, फास्फोरस व गलित जीवांश की कमी पाई जाती है। काली मिट्टी की तुलना में इनमें चूना, पोटाश व लोहा ऑक्साइड की मात्रा पाई जाती हैं। इनमें रंग की विभिन्नता लोहे के अंश में विभिन्नता के कारण होती हैं। इस विभिन्नता पर और भी रासायनिक पदार्थों के मिश्रण का प्रभाव पड़ता है। पठारी भागों में ये मिट्टियां कमजोर, पतली, कंकरीली व हल्के रंग की होती हैं। निम्न मैदानों और घाटियों में पाई जाने वाली लाल मिट्टियां अधिक उपजाऊ, गहरी और गहरे रंग की होती है।


इस मिट्टी पर विविध फसलें जैसे ज्वार-बाजरा आदि उगाई जाती है। अच्छी फसलें उगाने के लिये उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है।निम्न भूमियों की गहरे लाल रंग की मिट्टी अधिक उपजाऊ होती है। इसमे सिंचाई की सहायता से गन्ना, कपास, गेहूं, दालें, मोटे अनाज, रागी, तंबाकू और साग-सब्जियां उगाई जाती हैं।


लाल व पीली मिट्टी की विशेषताएं 

  • अनेक प्रकार की चट्टानों से बनी होने के कारण लाल- पीली मिट्टी विभिन्न गहराई वाली और उर्वरा शक्ति में बहुत तरह की होती है। 
  • ये मिट्टियां अत्यंत रंध्रयुक्त होती है और अत्यंत बारीक तथा गहरी होने पर ही उपजाऊ होती है। अतः शुष्क ऊँचे मैदानों में पाई जाने वाली मिट्टी उपजाऊ नहीं होती। यहां पर यह हल्के रंग की, पथरीली और कम गहरी होती हैं। इसमें बालू के समान मोटे कण पाये जाते हैं। अतः इस मिट्टी में केवल बाजरा ही पैदा होता है, किंतु निम्न भूमियों की लाल मिट्टी गहरे रंग की और अधिक गहरी तथा उपजाऊ होती हैं। इसमें कपास, गेहूं, दालें, मोटा अनाज पैदा किए जाते हैं। 
  • इस मिट्टी में लोहा, एल्युमीनियम और चूना यथेष्ट मात्रा में होता है किन्तु नाइट्रोजन, फास्फोरस और जीवांश कम होते है। 


4. लैटेराइट मिट्टी 

उष्ण कटिबंधीय भारी वर्षा के कारण होने वाली तीव्र निक्षालन क्रिया के कारण इस मिट्टी का निर्माण हुआ। यह मिट्टी चौरस उच्च भूमियों पर मिलती है। बहुत अधिक वर्षा वाले पश्चिमी तटीय प्रदेश में भी लैटेराइट मिट्टी का विस्तार हैं। यह पठार के पूर्वी किनारे पर एक-दूसरे से अलग छोटे-छोटे टुकड़ों में पाई जाती हैं। शुष्क मौसम में यह मिट्टी सूखकर इतनी सख्त हो जाती हैं कि इसे देखकर हमे चट्टान की सी भ्रान्ति होने लगती हैं। गीली होने पर यह दही की तरह लिपलिपी सी हो जाती है।


यह मिट्टी लगभग 1.26 लाख वर्ग किमी.क्षेत्र में पाई जाती है। यह मिट्टी विशेषकर पूर्वी व पश्चिमी घाट के समीप, राजमहल पहाडियों, दक्षिणी महाराष्ट्र, केरल के लगभग सभी जिलों कर्नाटक के चिकमंगलूर, शिमागा, उत्तरी व दक्षिणी कनारा, दुर्ग, बेलगाम, धारवाड़, बींदर, बंगलुरू व कोलार जिलो के कुछ क्षेत्रों में, आंध्र प्रदेश के मेढ़क, नेल्लोर व गोदावरी जिलों में उड़ीसा के लालासोर, कटक, गंजाम, मयूरभंज और सुन्दरगढ़ जिलों में तथा पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिले मे मिलती हैं। इसके अतिरिक्त असम के शिवसागर,लखीमपुर, उत्तरी कछारी पहाडियों व नवगांव जिलों में तथा मेघालय के गारो पहाड़ी क्षेत्रों में लैटेराइट मिट्टी पाई जाती है। 


सभी लैटेराइट मिट्टियों में चूने और मैग्नीशियम का अंश कम होता है तथा नाइट्रोजन की भी कमी होती है। कहीं-कहीं इसमें फास्फोरिक एसिड की मात्रा अधिक पाई जाती है। इसमें पोटाश नहीं होता है। निम्न भाग की लैटेराइट मिट्टियों में उर्वरकों की सहायता से गन्ना,रागी व चावल का उत्पादन किया जाता है। ऊपरी भागों में चारे की फसलें उगायी जाती है।


 लैटेराइट मिट्टी की विशेषताएं 

  • लैटेराइट मिट्टियां कई प्रकार की होती है। 
  • पहाडियों पर पाई जाने वाली मिट्टियां बहुत उपजाऊ होती हैं, उसमें नमी भी नहीं ठहर सकती। इसके विपरीत निम्न भूमियों पर इस मिट्टी के साथ चिकनी और दोमट भी मिली पायी जाती है। इसमें नमी काफी समय तक के लिए ठहर सकती है। 
  • इस मिट्टी में चूना, फाॅस्फोरस और पोटाश कम पाया जाता है किन्तु जीवांश यथेष्ट मात्रा में होते है। 



5. मरूस्थलीय मिट्टी 

उत्तरी विशाल मैदान के दक्षिण-पश्चिम भाग में थार का रेगिस्तान है, जो पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी हरियाणा व उत्तरी गुजरात राज्यों में विस्तृत है। यहां वर्षा बहुत कम होती है और हवा द्वारा उड़ाकर लाये हुए रेत के टीले बनते रहते हैं। इसलिए इस प्रदेश की मिट्टी उपजाऊ होती है। इसमे खनिज लवण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं, किन्तु ये शीघ्र घुल जाते हैं। सिंचाई के सहारे यहाँ खेती की जाती है। जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है वहाँ पर फसलें पैदा नहीं की जा सकती है। इस मिट्टी में फास्फेट की मात्रा अधिक, परंतु नाइट्रोजन की कमी होती हैं।


मरूस्थलीय मिट्टी विशेषताएं 

  • इस मिट्टी में बालू के कणों की प्रधानता मिलती है। 
  • इस मिट्टी में जीवांश बहुत कम तथा नमक अधिक मात्रा में होता है। 
  • इस मिट्टी में नाइट्रोजन बहुत कम तथा फास्फोरस पर्याप्त मात्रा में मिलती हैं।



6. लवणीय व क्षारीय मिट्टी 

इस तरह की भूमि पर सफेद रंग की परत-सी बिछ जाती है, जिससे भूमि बेकार हो जाती है और कोई पैदावार नहीं होती। इस भूमि को ऊसर या कल्लर भूमि भी कहते हैं। इसमें सोडियम, कैल्शियम व मैग्नीशियम लवणों की मात्रा अधिक होती है। इन मिट्टियों के बिखरे हुए क्षेत्र महाराष्ट्र, उड़ीसा व केरल के तटीय भागों, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, कच्छ के रन, सुंदरवन आदि क्षेत्रों के अर्द्धशुष्क व शुष्क क्षेत्रों में पाये जाते हैं। भारत में लगभग 70 हैक्टेयर भूमि में लवणों व क्षारीय की अधिकता होने से खेती नही की जा सकती है। इस प्रकार की मिट्टी की उत्पत्ति शुष्क एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों तथा नहरों द्वारा सिंचाई वाले भागों में सोडियम, कैल्शियम व मैग्नीशियम लवणों के अधिक मात्रा में निपेक्ष होने से हुई है। इस तरह की भूमि को खेती योग्य बनाने के लिये भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1969 में केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान की स्थापना करनाल में की थीं। इन मिट्टियों में सुधार के पश्चात धान व गेहूं की खेती की जा सकती है। 



7. पर्वतीय मिट्टी 

पर्वतीय मिट्टियों में पीट, मीडो, वन्य तथा पहाड़ी मिट्टियां शामिल होती है। वन्य मिट्टियां वास्तव में अभी निर्माण की प्रक्रिया में है। इन मिट्टियों का विस्तार देश की लगभग 9% भूमि पर है। नदियों की घाटियों और पहाड़ी ढालों पर अधिक गहरी होती हैं। पहाड़ी ढालों पर हल्की बलुई, छिछली व छिद्रमय मिट्टियां पाई जाती हैं जिनमें वनस्पति का अंश कम होता है। पश्चिमी हिमालय के ढालों पर अच्छी बालू मिट्टी मिलती हैं। मध्य हिमालय की मिट्टियां वनस्पति के अंश की अधिकता के कारण अधिक उपजाऊ है। मध्य हिमालय की मिट्टियों का अपेक्षाकृत कम विकास हुआ है। 


नैनीताल, मसूरी, चकरोता के निकटवर्ती स्थानों में चूना व डोलोमाइट से बनी मिट्टियां पाई जाती हैं। इनमें चीड़, साल के वृक्ष उगते है तथा कहीं-कहीं घाटियों में चावल भी उगाया जाता है। कांगड़ा, देहरादून, उत्तरी बंगाल के दार्जिलिंग तथा असम राज्य के पहाड़ी ढालों पर चाय मिट्टी अधिकता से पाई जाती हैं। हिमालय के दक्षिणी भाग में पथरीली मिट्टी अधिक पाई जाती है। नदियाँ इन्हें निचले ढालों पर जमा कर देतीं है। इस मिट्टी के कण मोटे होते हैं तथा इसमें कंकड-पत्थर के टुकड़े भी मिले रहते हैं। टर्शियरी मिट्टी दून घाटियों व कश्मीर घाटी में पाई जाती हैं। यहाँ इसमें चावल, आलू व चाय की फसलें उगाई जाती हैं।



मृदा से संबंधित समस्याएं एवं संरक्षण 

मिट्टी से संबद्ध अनेक समस्याओं में से एक समस्या मिट्टी का कटाव है। इससे उपजाऊ भूमि भी कृषि के अयोग्य बन जाती है। धरातल की मिट्टी का धीरे-धीरे स्थान छोड़ना या कट-कटकर अपने स्थान से बह जाना मिट्टी का कटाव कहलाता है। अनुमान है कि देश के छत्तीसगढ़, झारखंड व बिहार राज्यों में इससे बहुत अधिक क्षति पहुंची है। 


मिट्टी के कटाव के कारण 

  • भारत में होने वाली मूसलाधार मानसूनी वर्षा से मृदा का कटाव होता है।
  • अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में बाढें आने से मृदा ढीली पड़ जाती हैं।
  • वनों की कटाई के कारण भूमि नग्न-सी पडी है और आसानी से पवन तथा वर्षा की चपेट में आ जाती हैं।
  • ग्रीष्म ऋतु में खाली पड़े खेतों में पवनें वेग से चलती है। उस समय उपजाऊ मृदा पवनों के साथ उड़ जाती है। 

मृदा संरक्षण के उपाय 

  • वृक्षारोपण करना। 
  • नालियों पर बांध बनाना तथा अवरोध लगाना। 
  • पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाना। 
  • खेतों की मेड़ें मजबूत करना। 
  • ढालों वाली भूमि पर गोलाई में समोच्च रेखाओं में जुताई करना। 
  • पशुचारण को व्यवस्थित करना। 


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