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जर्मनी के एकीकरण का इतिहास: पृष्ठभूमि, प्रमुख बधाएँ, एकीकरण की प्रक्रिया और बिस्मार्क का योगदान

यूरोप के देश जर्मनी (Germany) का उदय राष्ट्रीयता की उस भावना का उदाहरण है जो फ्रांसीसी क्रांति और नेपोलियन बोनापार्ट की विजय यात्रा के बाद यूरोपीय देशों में बह रही थी। जर्मनी के निर्माण में सर्वाधिक योगदान नेपोलियन की विजय यात्रा को ही दिया जाता रहा है। आज के इस लेख में हम जर्मनी के एकीकरण (Unification of Germany in Hindi) के बारे में जानेंगे। हम जानेंगे की Germany Ka Ekikaran कब और कैसे हुआ? इसके एकीकरण में क्या-क्या बाधाए आई और उन बाधाओं को पार कर कैसे जर्मनी एक देश के रूप में उभरा। 

Germany Ka Ekikaran

Table of Content


Germany Ke Ekikaran की पृष्ठभूमि - Background of German Unification 

नेपोलियन की विजय से पूर्व जर्मनी 18वीं सदी के अंत में 300 से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों में बांटा हुआ था। नेपोलियन ने इनको जीत कर वियना कांग्रेस में 39 राज्यों के परिसंघ राइन संघ में बदल दिया। इस संघ में प्रशा राज्य आकर व सैनिक दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य था। ऑस्ट्रिया इस संघ का अध्यक्ष बना। इस परिसंघ में सभी राज्यों के प्रतिनिधि मिलकर एक डायट (सभा) बनाते थे। लेकिन इस डायट में ऑस्ट्रिया अपना पूर्ण प्रभाव बनाए रखता था। ऑस्ट्रिया ने इस संघीय डायट को शक्तिहीन बनाए रखा। 



जर्मनी के एकीकरण में प्रमुख बाधाएँ 

1. ऑस्ट्रिया उस समय यूरोपीय राजनीति में एक शक्तिशाली देश था। जर्मन राज्यों के एकीकरण में ऑस्ट्रिया ही प्रमुख प्रतिक्रियावादी शक्ति था। वह निरंतर अपने हस्तक्षेप जर्मनी में बनाए रखता था। ऑस्ट्रिया को भय था कि यदि जर्मन राष्ट्रवाद सफल हो गया तो बहुराष्ट्रीयता वाले उसके साम्राज्य को भी बिखरने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। 

2. जर्मनी के दक्षिणी राज्य (बवेरिया, बादेन, बुर्टेम्बर्ग आदि) कैथोलिक मत के प्रभाव में थे। अतः इनमें होने वाली समस्त राष्ट्रवादी गतिविधियों के विपरीत पोप इन राज्यों पर नियंत्रण बनाए रखता था। जर्मनी राज्यों के एकीकरण के प्रयास पर फ्रांस इन राज्यों में हस्तक्षेप कर सकता था ऐसी आशंका थी। 


3. समस्त यूरोपीय राजनीति का केंद्र फ्रांस की राजधानी पेरिस थी। फ्रांस किसी भी कीमत पर स्वयं की सीमा पर किसी और शक्तिशाली देश का उदय होते नहीं देख सकता था। अतः वह भी जर्मनी के एकीकरण का विरोधी था। 


4. इंग्लैंड भी फ्रांस की भांति जर्मन राज्यों में रुचि बनाए हुए था। उसने हनोवर प्रांत के बहाने उत्तरी राज्यों में हस्तक्षेप कर रखा था। 


5. जर्मनी का बौद्धिक वर्ग भी जर्मन एकता के प्रश्न पर विभिन्न-विभिन्न मत या विचार रखता था। कुछ राज्य जर्मनी का एकीकरण राजतंत्र के अधीन चाहते थे लेकिन वे लोग नेतृत्व के प्रश्न पर बंटे हुए थे। कुछ ऑस्ट्रिया के समर्थक थे तो कुछ प्रशा के समर्थक थे। दूसरी ओर जर्मनी में गणतंत्र समर्थक भी मौजूद थे। 


6. जर्मनी में सामाजिक व आर्थिक विषमताएँ भी विद्यमान थे। 


जर्मनी के एकीकरण में सहायक तत्व 

1. जॉलवरीन

जर्मनी के राजनैतिक एकीकरण की शुरुआत से पूर्व उसके आर्थिक एकीकरण ने जो आधारशिला तैयार की उसने जर्मन लोगों में राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रभावशाली बना दिया। प्रशा द्वारा 1818 ईस्वी में भावर्जबर्ग-सोंदर शोसन नामक छोटे राज्यों से सीमा शुल्क संघ नामक संधि 'जॉलवरीन' की। इन दोनों राज्यों के मध्य चुंगी समाप्त कर दी गई। माल की आवाजाही निर्बाध रूप से होने लगी। इसने व्यापार में अत्यधिक वृद्धि कर दी। आर्थिक एकता ने उस प्रादेशिक व क्षेत्रीय प्रभाव को कम कर दिया जो जर्मनी के एकीकरण में बाधक था। 


2. बौद्धिक आंदोलन 

किसी भी राष्ट्र के निर्माण में वहां के दार्शनिकों, इतिहासकारों, साहित्यकारों व कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। लिफ्टे, ईगल, हार्डेनबर्ग हेंटीक, डालमेल आदि दार्शनिकों ने जर्मन आंदोलन को सर्वश्रेष्ठ होने की संज्ञा दी। जर्मन जाति में आर्य अर्थात सर्वश्रेष्ठ मनुष्य की भावना भर दी। 


3. औद्योगिक प्रगति

औद्योगिक प्रगति के लिए आवश्यक कोयला और लोहा जर्मनी के हर क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में विधमान था। यही दोनों आज भी प्रत्येक उद्योग की आधारशिला माने जाते हैं। इन संसाधनों ने जर्मनी में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत कर दी। परिवहन के लिए रेलमार्गों का निर्माण किया गया। प्रशा और भावनबर्गनर के मध्य जॉलवरीन की संधि में प्रशा को यूरोप के अग्रणी औद्योगिक नगरों में ला खड़ा किया। इस औद्योगिक प्रगति ने उस व्यापारिक वर्ग को जन्म दिया, जो अब जर्मनी के एकीकरण में ही स्वयं का लाभ देख रहा था। वे चाहते थे कि जर्मनी में व्यापार निर्बाध रूप से हो। जॉलवरीन के माध्यम से जो आर्थिक एकीकरण की शुरुआत हुई वह रेल मार्ग के माध्यम से शीघ्र ही जर्मनी के दूसरे छोटे-छोटे राज्यों में पहुंच गई। उधर ऑस्ट्रिया लगातार होने वाले युद्धों और पुराने व्यापारिक नियमों, एकाधिकार और गिल्ड प्रथा के कारण आर्थिक संकट की ओर जा रहा था। 



जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क का योगदान 

प्रशा का राजा विलियम प्रथम उदारवादी विचारों में विश्वास रखने वाला व्यक्ति था लेकिन वह जानता था कि जर्मनी का एकीकरण राजतंत्र एवं उसकी अधीन सुदृढ़ सेना के माध्यम से ही हो सकता है। इसी कारण उसने वानरून को युद्ध मंत्री, वानमॉल्टके को सेनापति एवं बिस्मार्क को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। बिस्मार्क एक चतुर राजनीतिज्ञ, अंतरराष्ट्रीय मामलों का जानकार तथा कूटनीतिक कुशलता से परिपूर्ण व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति था। बिस्मार्क का मानना था कि 1848-1849 ई. तक का जो समय राष्ट्रवादियों ने वाद-विवाद में समाप्त कर दिया था वह उनकी भूल थी। उसका मानना था कि उस काल की बड़ी समस्याएँ भाषणों और बहुमत के प्रस्ताव द्वारा नहीं बल्कि लौह और रक्त नीति से सुलझ सकती थी। 


बिस्मार्क ने इस कारण प्रशा को शक्तिशाली राज्य बनाने की ठानी। संसद के निचले सदन द्वारा सैन्य बजट अस्वीकार करने पर उच्च सदन से ही पारित करवा अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। बिस्मार्क एक ओर तो ऑस्ट्रिया को सेना के दम पर जर्मन राज्यों से बाहर निकलना चाहता था। दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय स्थिति का लाभ लेना चाहता था। इस दिशा में उसने अन्य देशों के साथ गुप्त संधियाँ तथा कूटनीति के प्रयास आरंभ कर दिए। 



जर्मनी के एकीकरण की शुरुआत - Germany Ka Ekikaran

1. डेनमार्क से युद्ध और गेस्टाइन की संधि 

जर्मनी संघ की दो रियासतें भलेसविग और हालस्टाइन पर डेनमार्क का अधिकार था। हालस्टाइन की अधिकांश जनसंख्या जर्मन थी। साथ ही वह जर्मन संघ का सदस्य भी था। दूसरी ओर भलेसविग में जर्मन बहुमत में तो थे मगर वहां डेन लोग भी रहा करते थे। डेन लोग जर्मनी के एकीकरण के विरोधी थी। 1852 ई. की लंदन संधि में डेनमार्क ने इन दोनों रियासतों को कभी भी अपने में विलय नहीं करने की बात स्वीकार कर ली थी। लेकिन 1863 ईस्वी में डेनमार्क के शासक फ्रेडरिक ने इन दोनों रियासतों पर लंदन संधि के विरुद्ध अधिकार कर लिया। 


इस प्रश्न पर प्रथम बार बिस्मार्क को अपनी राजनीतिक योग्यता और कूटनीति कुशलता दिखाने का अवसर मिला। बिस्मार्क इस अवसर का लाभ उठा ऑस्ट्रिया को जर्मनी से बाहर करके उसके नेतृत्व में जर्मन संघ को समाप्त करना चाहता था। बिस्मार्क के प्रयास से इन दोनों रियासतों को लेकर जनवरी 1864 ईस्वी में प्रशा व ऑस्ट्रिया में समझौता हुआ। जिसमें दोनों रियासतों पर डेनमार्क के अधिकार को अस्वीकार कर उसे अंतिम चेतावनी देने का निश्चय किया गया। यह मैत्री बिस्मार्क की विजय थी। इसमें उसने ऑस्ट्रिया को साथ में तो ले लिया लेकिन दोनों रियासतों का भविष्य पारस्परिक समझौते द्वारा तय करने का निश्चय किया। 


फरवरी 1864 ईस्वी में आस्ट्रिया और प्रशा की संयुक्त सेना ने डेनमार्क को हरा दिया। इंग्लैंड डेनमार्क की सहायता के लिए आगे नहीं आया जिसका डेनमार्क को भरोसा था। 


गेस्टाइन की संधि 

गेस्टाइन नामक स्थान पर 14 अगस्त 1865 ई. को विलियम प्रथम और ऑस्ट्रिया के सम्राट फ्रांसिस जोसेफ में समझौता हो गया। समझौते की प्रमुख शर्ते इस प्रकार थी -

  • इस समझौते में हाल्सटाइन ऑस्ट्रिया को और भलेसविग प्रशा को मिला। 
  • लावेनबुर्ग की डची के एवज मिनी ऑस्ट्रिया ने रुपए लेना स्वीकार कर लिया। 
  • कील नामक बंदरगाह पर जो सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, किलेबंदी करने का अधिकार प्रशा को मिला। 


यह समझौता ऑस्ट्रिया की राजनीतिक भूल और बिस्मार्क की बड़ी कूटनीतिक विजय थी। हाल्सटाइन यद्धपि ऑस्ट्रिया को मिला लेकिन इसकी अधिकांश जनसंख्या जर्मन थी तथा वह जर्मन राज्यों के अधिक नजदीक था। वहां पर विद्रोह की भावना भड़काने के अधिक अवसर थे। 


2. ऑस्ट्रिया से युद्ध (सेडोवा का युद्ध) तथा प्राग की संधि 

बिस्मार्क यह चाहता था कि गेस्टाइन समझौता ही ऑस्ट्रिया से युद्ध का आधार बने। इसलिए उसने कूटनीति का परिचय देते हुए हालस्टाइन रियासत ऑस्ट्रिया को दे दी। एक ओर बिस्मार्क ने युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी वहीं दूसरी तरफ उसने कूटनीति के माध्यम से ऑस्ट्रिया को यूरोपीय राष्ट्रों से सहायता ना मिले इस योजना को अमल में लाने के प्रयास प्रारंभ कर दिए। इस कार्य में उसे अंतरराष्ट्रीय अनुकूल वातावरण भी मिला। इंग्लैंड यूरोपीय राष्ट्रों में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति पर चल रहा था, इससे प्रशा को ही फायदा मिला। दूसरी तरफ पोलैंड के विद्रोह में रूस की मदद कर बिस्मार्क ने जर्मनी के पक्ष में रूस की सहानुभूति प्राप्त कर ली थी। 1865 में बियारिट्स में हुई बिस्मार्क एवं नेपोलियन तृतीय की मुलाकात में फ्रांस के तटस्थ होने का वादा बिस्मार्क ने ले लिया था। इसके बदले में फ्रांस को राइन प्रदेश के कुछ भाग प्राप्त होने थे। 


उधर इटली के एकीकरण में ऑस्ट्रिया भी बाधक बन रहा था। दुश्मन का दुश्मन मित्र की नीति पर काम करते हुए 1866 ईस्वी में प्रशा और सार्डिनिया में समझौता हुआ। ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध छेड़ने पर प्रशा सार्डिनिया को वेनिशिया दिलवा देगा ऐसा वचन दिया गया। 


एक तरफ हालस्टाइन की जर्मन जनता ऑस्ट्रिया के विरुद्ध आंदोलन कर रही थी, जिसे बिस्मार्क गुप्त रूप से समर्थन दे रहा था। दूसरी तरफ ऑस्ट्रिया हालस्टाइन में ड्यूक ऑफ़ आगस्टाइन वर्ग के पक्ष में चल रहे हैं आंदोलन को प्रोत्साहित कर रहा था। इसी मुद्दे पर ऑस्ट्रिया व प्रशा में 3 जुलाई 1866 ई. को सेडोवा या कोनीग्राज में निर्णायक युद्ध हुआ। ऑस्ट्रिया इस युद्ध में पराजित हुआ। दोनों देशों के मध्य 23 अगस्त 1866 ई. को प्राग की संधि हुई जिसमें -


  • जर्मन परिसंघ को समाप्त कर दिया गया। 
  • हनोबर्ग, भलेसविग, हाल्स्टाइन आदि  रियासतें प्रशा में शामिल हुई। 
  • प्रशा के नेतृत्व में उत्तरी जर्मनी परिसंघ बनाया गया। उसमें ऑस्ट्रिया को शामिल नहीं किया गया। 


3. फ्रांस-प्रशा युद्ध (सेडान का युद्ध) एवं फ्रैंकफर्ट की संधि

सेडोवा के युद्ध में फ्रांस तटस्थ रहने पर भी राइन नदी तक का क्षेत्र जर्मनी से प्राप्त करने में असफल रहा था। इससे फ्रांस की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। पहले यूरोपीय राजनीति का केंद्र फ्रांस था अब वह जर्मनी हो चुका था। नेपोलियन तृतीय की देश में साख गिरती जा रही थी। नेपोलियन तृतीय ने हॉलैंड से लक्जमबर्ग खरीदने का प्रस्ताव रखा था। जर्मन के राष्ट्रवादीयों, समाचारपत्रों एवं राजनीतिज्ञों ने इसका तीव्र विरोध किया। इस विरोध के चलते हॉलैंड ने लक्जमबर्ग फ्रांस को देने से इनकार कर दिया। 


दूसरा तनावपूर्ण प्रश्न स्पेन की राजगद्दी को लेकर हुआ। स्पेन की गद्दी पर प्रशा के शासक के संबंधी राजकुमार लियोपोल्ड को बैठाने का आमंत्रण मिला। इससे प्रशा की प्रतिष्ठा व अधिकार में वृद्धि होना स्वाभाविक था। दूसरी और फ्रांस में इस निर्णय का तीव्र विरोध हुआ। लियोपोल्ड को स्पेन की गद्दी मिलने से प्रशा की शक्ति बढ़ना तथा फ्रांस की सुरक्षा को भयंकर खतरा होना दिखाई दे रहा था। फ्रांस के राजदूत ने एम्स नामक स्थान पर सम्राट विलियम से मिलकर लियोपोल्ड को स्पेन के सिंहासन पर नहीं बैठाने के लिए मना लिया। इस बातचीत का लिखित विवरण तार द्वारा बिस्मार्क को मिल गया। बिस्मार्क ने कूटनीति का परिचय देते हुए उस पत्र को प्रकाशित करवा दिया। उसका वही प्रभाव हुआ जो वह चाहता था। फ्रांस व प्रशा दोनों ने इस पत्र को अपने-अपने अनुसार स्वयं का अपमान माना। 


15 जुलाई 1870 ई. को फ्रांस व प्रशा के मध्य युद्ध प्रारंभ हो गया। निर्णायक युद्ध सेडान में 1 सितंबर 1870 ई. को हुआ। इसमें प्रशा के सेनापति वानमॉल्टके ने फ्रांसीसी सेना को पराजित किया। 18 जनवरी 1871 ई. में वर्साय के महल में जर्मनी के सम्राट विलियम का राज्याभिषेक किया गया। 26 फरवरी 1871 ई. को फ्रैंकफर्ट की संधि हुई। इस संधि के निम्नलिखित परिणाम हुए -


  • इस संधि ने जर्मनी के एकीकरण को पूर्ण कर प्रशा के नेतृत्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण किया। 

  • युद्ध पश्चात संधि में फ्रांस को अल्सास, लारेन जैसे औद्योगिक प्रदेश जर्मनी को सौंपने पड़े। फ्रांस के समृद्ध प्रदेश जर्मनी को मिलने से वहां भविष्य में तेजी से औद्योगिक प्रगति हुई। जिसके कारण इंग्लैंड व जर्मनी में उपनिवेशों के लेकर होड़ शुरू हो गई। 

  • संधि में फ्रांस के हुए अपमान ने प्रथम विश्व युद्ध की नींव रख दी। 

  • बिस्मार्क ने जिन गुप्त संधियों की शुरुआत जर्मनी के एकीकरण के लिए की वही अब यूरोप की राजनीति को बदलने जा रही थी। बिस्मार्क की लौह और रक्त नीति ने उदारवाद पर घातक प्रहार किया था।  

  • फ्रांस पर 20 करोड़ पौंड का युद्ध हरजाना थोपा गया। यह भी तय हुआ कि जब तक हर्जाने की राशि नहीं चुका दी जाती जर्मन सैनिक उत्तरी फ्रांस में बने रहेंगे। यह फ्रांस का अपमान था। 

  • इस युद्ध के कारण रोम पर इटली का अधिकार हो गया। जर्मनी के साथ ही इटली का एकीकरण भी पूर्ण हुआ। 



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